दो महीने पहले मैंने हास्य-व्यंग्य पर लिखा, तो लोगों ने मुँह पर और चिट्ठियों में कहा—“आपको हँसी से एलर्जी है। बस कठोर व्यंग्य में मज़ा आता है।” अरे भई, मैं व्यंग्य इसलिए लिखता हूँ कि लोग हँस सकें, मुस्कुरा सकें, चेहरा रोनी सूरत में अटका न रहे।
हँसी मन की निर्मलता है। जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा—“जितनी देर आदमी हँसता है, उतनी देर उसके मन में मैल नहीं रहता, न कोई शत्रु होता है, न ईर्ष्या-द्वेष।” लेकिन मैंने ईर्ष्या और द्वेष से भरी हँसी भी देखी है। मैं बात कर रहा हूँ निर्मल हँसी की—वही जो बिना किसी को चोट पहुँचाए फूटे।
मनुष्य ही हँस सकता है—बाकी तो या तो दाँत दिखाते हैं या दहाड़ते हैं। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते थे—जो आदमी हँसता नहीं, वह वनमानुष है। और सच बताइए, हिटलर-मुसोलिनी की तसवीरें देखिए—हँसी उनके चेहरे पर वैसी ही दुर्लभ थी जैसे बर्फ में अंगीठी। द्विवेदी जी मानते थे कि इन्हें हँसी का इंजेक्शन दे दो, तो इनके हाथ से बम छूटकर फूल पकड़ा देंगे।
मैंने उन तानाशाहों की सैकड़ों तस्वीरें देखीं—किसी में हँसी नहीं। हाँ, बाद में स्टालिन की एक मशहूर तस्वीर आई जिसमें वह गुलदस्ता लाती बच्ची को मुस्कुराकर गोद में उठा रहे थे। बाद में पता चला—वह भी प्रचार के लिए मंचित दृश्य था।
हँसी की दो नस्लें हैं—
निर्मल हास्य हर जगह है, बस देखने की नज़र चाहिए। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अनजाने में खीझ भी पैदा करते हैं। एक रिटायर्ड सज्जन आते और बस मकानों की चर्चा—कहाँ कितना महँगा, किसका प्लॉट बिक गया। एक दिन मैंने मज़ाक में शहर के सबसे बड़े महल की कीमत तीस हज़ार बताई—बस, जैसे उनके अपने घर पर बुलडोज़र चला दिया हो! “व्हाट डू यू मीन?” मैं बोला—“चलो पचास कर दो।” आधा घंटा हम ऐसे बहस करते रहे जैसे रजिस्ट्री कल हमारे नाम होनी हो। अंत में हँसकर मामला खत्म किया।
हँसी का दूसरा चेहरा—लकड़बग्घे की हँसी—क्रूर, नीच, अपमानजनक। जैसे दंगों में घर जलाकर अट्टहास करना, अंधे की लाठी छीनकर उसकी घबराहट पर ठहाके लगाना, किसी मोटी लड़की पर व्यंग्य करना, या गरीब रिक्शेवाले को बेवकूफ बनाकर मजा लेना। यह हँसी नहीं, यह मनुष्यता पर थू है।
ऐसी हँसी मैंने औरों में भी देखी—दो अमीरजादे रिक्शा तय कर कम दूरी पर उतर गए और पैसे पूरे देने से मना कर हँसने लगे—“अरे यही तो पुल है।” रिक्शेवाला विनती करता रहा, वे और जोर से हँसते रहे—“मज़ा आ गया यार, बेवकूफ बनाया।”
मनुष्य को हँसना चाहिए—पर वही हँसी जो जोड़ती है, तोड़ती नहीं। जो कभी नहीं हँसता, वह वनमानुष है; और जो लकड़बग्घे की तरह हँसता है, वह मनुष्य होकर भी अमानवी है।
दो महीने पहले मैंने हास्य-व्यंग्य पर लिखा, तो लोगों ने मुँह पर और चिट्ठियों में कहा—“आपको हँसी से एलर्जी है। बस कठोर व्यंग्य में मज़ा आता है।” अरे भई, मैं व्यंग्य इसलिए लिखता हूँ कि लोग हँस सकें, मुस्कुरा सकें, चेहरा रोनी सूरत में अटका न रहे।
हँसी मन की निर्मलता है। जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा—“जितनी देर आदमी हँसता है, उतनी देर उसके मन में मैल नहीं रहता, न कोई शत्रु होता है, न ईर्ष्या-द्वेष।” लेकिन मैंने ईर्ष्या और द्वेष से भरी हँसी भी देखी है। मैं बात कर रहा हूँ निर्मल हँसी की—वही जो बिना किसी को चोट पहुँचाए फूटे।
मनुष्य ही हँस सकता है—बाकी तो या तो दाँत दिखाते हैं या दहाड़ते हैं। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते थे—जो आदमी हँसता नहीं, वह वनमानुष है। और सच बताइए, हिटलर-मुसोलिनी की तसवीरें देखिए—हँसी उनके चेहरे पर वैसी ही दुर्लभ थी जैसे बर्फ में अंगीठी। द्विवेदी जी मानते थे कि इन्हें हँसी का इंजेक्शन दे दो, तो इनके हाथ से बम छूटकर फूल पकड़ा देंगे।
मैंने उन तानाशाहों की सैकड़ों तस्वीरें देखीं—किसी में हँसी नहीं। हाँ, बाद में स्टालिन की एक मशहूर तस्वीर आई जिसमें वह गुलदस्ता लाती बच्ची को मुस्कुराकर गोद में उठा रहे थे। बाद में पता चला—वह भी प्रचार के लिए मंचित दृश्य था।
हँसी की दो नस्लें हैं—
निर्मल हास्य हर जगह है, बस देखने की नज़र चाहिए। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अनजाने में खीझ भी पैदा करते हैं। एक रिटायर्ड सज्जन आते और बस मकानों की चर्चा—कहाँ कितना महँगा, किसका प्लॉट बिक गया। एक दिन मैंने मज़ाक में शहर के सबसे बड़े महल की कीमत तीस हज़ार बताई—बस, जैसे उनके अपने घर पर बुलडोज़र चला दिया हो! “व्हाट डू यू मीन?” मैं बोला—“चलो पचास कर दो।” आधा घंटा हम ऐसे बहस करते रहे जैसे रजिस्ट्री कल हमारे नाम होनी हो। अंत में हँसकर मामला खत्म किया।
हँसी का दूसरा चेहरा—लकड़बग्घे की हँसी—क्रूर, नीच, अपमानजनक। जैसे दंगों में घर जलाकर अट्टहास करना, अंधे की लाठी छीनकर उसकी घबराहट पर ठहाके लगाना, किसी मोटी लड़की पर व्यंग्य करना, या गरीब रिक्शेवाले को बेवकूफ बनाकर मजा लेना। यह हँसी नहीं, यह मनुष्यता पर थू है।
ऐसी हँसी मैंने औरों में भी देखी—दो अमीरजादे रिक्शा तय कर कम दूरी पर उतर गए और पैसे पूरे देने से मना कर हँसने लगे—“अरे यही तो पुल है।” रिक्शेवाला विनती करता रहा, वे और जोर से हँसते रहे—“मज़ा आ गया यार, बेवकूफ बनाया।”
मनुष्य को हँसना चाहिए—पर वही हँसी जो जोड़ती है, तोड़ती नहीं। जो कभी नहीं हँसता, वह वनमानुष है; और जो लकड़बग्घे की तरह हँसता है, वह मनुष्य होकर भी अमानवी है।
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I write and speak on the matters of relevance for technology, economics, environment, politics and social sciences with an Indian philosophical pivot.