भृगु वंश में ऋचीक का जन्म हुआ था जो भारी तपस्या में लीन रहते थे। एक बार ऋचीक राजा गाधि के महल में गये। भरत वंश में उत्पन्न राजा कुशिक के पुत्र गाधि से ऋचीक ने उनकी कन्या सत्यवती को विवाह के निमित्त मांगा। गाधि राजा थे और ऋचीक ग़रीब ब्राह्मण। राजा ने ऋचीक को दरिद्र समझ कर यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। ऋचीक जब लौट कर जाने लगे तो राजा ने ऋचीक से यह जरूर कहा कि यदि वह एक हज़ार ऐसे घोड़े लाकर राजा को दे सकें जो कि चन्द्रमा के समान सप़फ़ेद रंग के हों और जिनका वेग वायु की तरह हो और जिनका केवल एक कान काले रंग का हो तो राजा उनकी माँग स्वीकार कर लेंगे। राजा को विश्वास था कि ग़रीब ब्राह्मण होने के कारण ऋचीक ऐसे घोड़ों की व्यवस्था नहीं कर पायेंगे और उन्हें राजकुमारी का विवाह उनसे नहीं करना पड़ेगा। उधर ऋचीक ने वरुण देवता से ऐसे घोड़े देने को कहा। वरुण ने गंगा जी के माध्यम से घोड़ों को उपलब्ध करवा दिया। बताते है कि कन्नोज में गंगा के किनारे का अश्वतीर्थ ही वह स्थान है जहाँ गंगा ने ऋचीक को यह घोड़े दिये थे। घोड़े लेकर ऋचीक गाधि के पास पहुँचे। राजा ने अपनी बात रखी और अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह ग़रीब ऋचीक के साथ कर दिया।
सत्यवती गाधि राज की एकलौती संतान थी और अपने मन में एक भाई पाने की प्रबल इच्छा रखती थी। सत्यवती की माँ ने एक बार सत्यवती से कहा कि ऋचीक बहुत बड़े तपस्वी हैं और उनकी कृपा से सत्यवती को भाई प्राप्त हो सकता है। सत्यवती ने ऋचीक को प्रसन्न किया। तब ऋचीक ने दो प्रसाद अलग-अलग तैयार किये और दोनों को सत्यवती को दे दिया। उन्होंने कहा कि एक प्रसाद वह अपनी माता को दे दे जिसके सेवन से उसे एक बहुत ही श्रेष्ठ गुणों वाला क्षत्रिय पुत्र पैदा होगा और दूसरा वह स्वयं खा ले जिससे उसे एक बहुत ही गुणवान और तेजस्वी पुत्र होगा जो कि भृगु वंश को चलायेगा। सत्यवती की माँ को लोभ हुआ कि ऋचीक ने निश्चित ही श्रेष्ठतर पुत्र की आकांक्षा से सत्यवती के लिए बेहतर प्रसाद बनाया होगा। उसने प्रसाद बदल दिया। परिणाम यह हुआ कि रानी के तो श्रेष्ठ ब्राह्मण गुणों से युत्तफ़ एक पुत्र हुआ जो कि बाद में विश्वामित्र नाम से विख्यात हुआ। परन्तु सत्यवती क्षत्रिय स्वभाव वाले पुत्र की कल्पना मात्र से कांप गई। उसने ऋचीक से आग्रह किया कि उसे शान्त स्वभाव वाला श्रेष्ठ गुणों से युत्तफ़ पुत्र ही चाहिये। ऋचीक ने विधान न टलने की बात की पर सत्यवती ने आग्रह किया कि उसका पौत्र भले ही उग्रकर्मा क्षत्रिय स्वभाव का हो जाये पर उसका पुत्र वैसा न हो। तब ऋचीक की कृपा से सत्यवती को शुभ गुणों से संपन्न पुत्र (बाद में जमदग्नि नाम से प्रसिद्व) की प्राप्ति हुई परन्तु उसके पौत्र के रूप में प्रचण्ड उग्र स्वभाव वाले परशुराम का जन्म हुआ।
कुशिक वंश से उत्पन्न होने के कारण सत्यवती का नाम कौशिकी भी था। इस तरह कौशिकी सत्यवती विश्वामित्र की बड़ी बहन थी। यही सत्यवती अपने महाप्रयाण के बाद कौशिकी नदी बन कर प्रवाहित हुई जिसे आजकल हम कोशी या कोसी कहते हैं। रामायण में ताड़का वध के बाद विश्वामित्र जब राम और लक्ष्मण के साथ अयोध्या से शोणभद्र (सोन नदी) की ओर प्रस्थान कर रहे थे तब उन्होंने इन राजकुमारों को अपनी इस बड़ी बहन का परिचय करवाया थाः
पूर्वजा भगिनी चापि मम राघव सुव्रता
नाम्ना सत्यवती नाम ऋचीके प्रतिपादिता। 7।
सशरीरा गता स्वर्गे भर्तारमनुवर्तिनी
कौशिकी परमोदारा प्रवृत्ता च महानदी। 8।
दिव्या पुण्योदका रम्या हिमवन्तमुपाश्रिता
लोकस्य हितकार्यार्थे प्रवृत्ता भगिनी मम्। 9।
ततोSहं हिमवत्पार्श्वे वसामि नियतः सुखम्
भगिन्यां स्नेह संयुत्तफ़ः कौशिक्यां रघुनन्दन। 10।
सा तु सत्यवती पुण्या सत्ये धर्मे प्रतिष्ठिता
पतिव्रता महाभागा कौशिकी सरितां वरा।। 11।।
अहम् हि नियमाद् राम हित्वा तां समुपागतः
सिद्धाश्रममनुप्राप्तः सिद्धोSस्मि तव तेजसा। 12।
वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड/सर्ग 34
“मेरी एक ज्येष्ठ बहन भी थी, जो उत्तम व्रत का पालन करने वाली थी। उसका नाम सत्यवती था। वह ऋचीक मुनि को ब्याही गई थी। अपने पति का अनुसरण करने वाली सत्यवती शरीर सहित स्वर्ग चली गई थी। परम उदार महानदी कौशिकी के रूप में ही प्रकट होकर इस भूतल पर प्रवाहित होती है। मेरी यह बहन जगत के हित के लिए हिमालय का आश्रय लेकर नदी रूप में प्रवाहित हुई। वह पुण्य सलिला दिव्य नदी बड़ी रमणीय है। रघुनन्दन! मेरा अपनी बहन कौशिकी के प्रति बहुत स्नेह है अतः मैं हिमालय के निकट उसी के तट पर नियम पूर्वक बड़े सुख से निवास करता हूँ। पुण्यमयी सत्यवती सत्य धर्म में प्रतिष्ठित है। वह परम सौभाग्यशालिनी पतिव्रता देवी यहाँ सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी के रूप में विद्यमान है। श्री राम! मैं यज्ञ सम्बन्धी नियम की सिद्धि के लिए ही अपनी बहन का सानिध्य छोड़ कर सिद्धाश्रम में आया था। अब तुम्हारे तेज से मुझे वह सिद्धि प्राप्त हो गई है।‘’
कौशिक विश्वामित्र का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था मगर उन्होंने ऋषि होने के विचार से पुष्कर तीर्थ में एक हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। वह देवताओं के आशीर्वाद से ऋषि तो हो गये पर अपनी तपस्या खण्डित नहीं होने दी। विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र ने मेनका को नियुत्तफ़ किया। मेनका विश्वामित्र के पुण्य को अच्छी तरह समझती थी। जब इन्द्र उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को विश्वामित्र के पास भेज रहे थे तब मेनका ने भय व्यत्तफ़ करते हुये देवराज इन्द्र से बहुत बातें कही थीं और विश्वामित्र का परिचय देते हुये कहा था
कि,
“शोचार्थं यो नदीं चक्रे दुर्गमां बहुभिर्जलैः
यां तां पुण्यतमां लोके कौशिकीति विंदुर्जनाः।“
महाभारत-आदि पर्व 61/30
“(विश्वामित्र वे ही ऋषि हैं) जिन्होंने अपने शौच स्नान की सुविधा केलिए अगाध जल से भरी हुई उस दुर्गम नदी का निर्माण किया जिसे लोकों में सब मनुष्य अत्यंत पुण्यमयी कौशिकी नदी के नाम से जानते हैं।“ मेनका को विश्वामित्र से डर लगता था, ‘कोपनश्च तथा स्येनं जानाति भगवानपि’ (वे क्रोधी भी बहुत हैं, उनके इस स्वभाव को आप भी जानते हैं)। वही ऋषि-श्रेष्ठ विश्वामित्र बाद में मेनका के लावण्य को नहीं सह पाये। मेनका ने अपना काम किया और देवताओं का मनोरथ सिद्ध हुआ। उसने विश्वामित्र से एक कन्या को जन्म दिया जो कि प्रकारान्तर में शकुन्तला नाम से विख्यात हुई। इसे उसने मालिनी नदी के तट पर छोड़ दिया था। उधर विश्वामित्र ने जब मेनका के साथ दस वर्ष बिता लिए तब एकाएक उनका विवेक जगा और उन्हें दवताओं की करतूत पर गुस्सा आया और अपनी हालत पर तरस, और तब वह मेनका को विदा करके फिर कौशिकी के किनारे एक हजार वर्ष की तपस्या के लिए आ गये।
पुष्कर तीर्थ की तपस्या ने उनको ऋषि बनाया था तो कौशिकी के किनारे विश्वामित्र महर्षि हो गये। अब उन्होंने कामदेव पर विजय पा ली थी। “महर्षि शब्द लभतां साधवयंकुशिकात्मजः”। कौशिकी का प्रेम विश्वामित्र को बरबस अपनी ओर खींचता था। राम विवाह के बाद भी विश्वामित्र सीधेकौशिकी तट के आश्रम की ओर चले गये थे।
‘अथ रात्र्यां व्यतीतायां विश्वामित्रे महामुनिः
आपृष्ट्वा तौ च राजानौ जगामोत्तर पर्वत।,
वाल्मीकि रामायण-बाल काण्ड 74/1
“तदन्तर जब रात बीती और सवेरा हुआ तब महामुनि विश्वामित्र दोनों राजाओं (महाराज दशरथ और राजा जनक) से पूछ कर, उनकी स्वीकृति लेकर उत्तर पर्वत पर (हिमालय की शाखा भूत पर्वत पर, जहाँ कौशिकी के तट पर उनका आश्रम था) चले गये।“
शक्ति रूपा कौशिकी
कौशिकी की उत्पत्ति की एक दूसरी कथा मार्कण्डेय पुराण में मिलती है। शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो असुर भाई थे जिन्होंने घोर तपस्या करके देवताओं का राज्य हथिया लिया और उनको प्रताडि़त करना शुरू किया और
उनका सब कुछ छीन कर उन्हें राज्य से निकाल दिया। यह सब देवता राज्य विहीन होकर हिमालय जाते हैं और माँ भगवती की स्तुति करते हैं। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर पार्वती देवताओं से उनके आने का कारण पूछती
हैं। उसी समय पार्वती के शरीर से शिवा देवी उत्पन्न होती हैं पार्वती से कहा,
“शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्व्वत्या निःसृताम्बिका
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते।।
तस्यां विनिर्ग्वतायान्तु कृष्णाभूत्सापि पार्व्वती
कालिकेति समाख्याता हिमाचल कृताश्रयाः।।"
“शुम्भ और निशुम्भ ने इनको (देवताओं को) युद्ध में परास्त करके राज्य से निकाल दिया है। इसलिए समस्त देवता यहाँ एकत्र होकर हमारी स्तुति कर रहे हैं। (इसके बाद) पार्वती के शरीर कोश से (शुम्भ और निशुम्भ को वध करने के लिए) शिवा देवी निकली थीं इसलिए वह लोकों में कौशिकी नाम से प्रसिद्ध हुइंर्। पार्वती के शरीर से जब कौशिकी प्रकट हो गई, तभी से पार्वती कृष्ण वर्ण की हो गईं औैर कालिका नाम से प्रसिद्ध होकर हिमालय पर्वत पर रहने लगीं।“
कौशिकी (कोसी) से सम्बन्धित इस तरह की कितनी ही कहानियाँ पुराणों, आदि-ग्रंथों, लोक कथाओं और किंवदन्तियों में भरी पड़ी हैं।
जहाँ मृत्यु ने साधना की
महाभारत में एक अन्य कहानी आई है। सृष्टि में पहले मृत्यु नहीं थी, सभी प्राणी सिर्फ जि़न्दा रहते थे। कुछ समय तक तो सब ठीक चला मगर बाद में ब्रह्मा को लगा कि जब कोई मरेगा ही नहीं तब तो भारी अव्यवस्था फैल जायेगी। तब पृथ्वी के भार को हल्का करने के लिए ब्रह्मा के तेज से मत्यु की उत्पत्ति होती है जिसे ब्रह्मा सारे प्राणियों के संहार के लिए नियुत्तफ़ करते हैं। लाल और पीले रंग की यह नारी जो कि तपाये हुये सोने के कुण्डलों से सुशोभित थी और जिसके सभी आभूषण सोने के थे, यह प्रचण्ड कर्म नहीं करना चाहती थी जिसके लिए उसने बार-बार ब्रह्मा से याचना की पर सफल न हो सकी। अंततः उसने ब्रह्मा को प्रसÂ करने के लिए घोर तपस्या की। अपनी तपस्या के क्रम में मृत्यु ने कौशिकी का आश्रय लिया था,
‘सा पूर्वे कौशिकीं पुण्यां जगाम नियमैधिता
तत्र वायु जलाहारा च चार नियमं पुनः।’
महाभारत, द्रोणपर्व 54/22
‘तदनन्तर व्रत नियमों से संपन्न हो मत्यु पहले पुण्यमयी कौशिकी नदी के तट पर गई और वहाँ वायु तथा जल का आहार करती हुई पुनः कठोर नियमों का पालन करने लगी।’
संहार कर्म से बचने की मृत्यु की यह तपस्या सफल नहीं हुई और अन्ततः उसे ब्रह्मा का आदेश मानना ही पड़ा। पता नहीं मृत्यु की तपस्थली के रूप में वेदव्यास ने कौशिकी को क्यों चुना?
I write and speak on the matters of relevance for technology, economics, environment, politics and social sciences with an Indian philosophical pivot.