हाल ही में एक लेख पढ़ रहा था। नंदन निलेकनी जैसे विज़नरी चुनाव हार गए। प्रशांत किशोर की पार्टी ने कई 'पढ़े-लिखे' विद्वान उतारे, पर उनकी जमानतें जब्त हो गईं।
सोशल मीडिया पर एक ही शोर है: "इस देश के लोग सुधार नहीं चाहते।" "जनता को अच्छे लोगों की कद्र नहीं है।"
बतौर फाउंडर (BallotboxIndia), मेरा अनुभव कहता है कि हमें जनता को दोष देने के बजाय थोड़ा आत्ममंथन करने की ज़रूरत है।
मैं हाल ही में गुरुग्राम में एक सभा में था। वहां बड़े नौकरशाह और नेता मौजूद थे। चर्चा का विषय था 'विकास'।
वहां एक बात शीशे की तरह साफ़ हुई:
सरकारी मशीनरी कोई 'सॉफ्टवेयर' नहीं है जो एक क्लिक पर चल जाए। यह एक 'अनियंत्रित घोड़े' के समान है।
इस घोड़े की सवारी वही कर सकता है जिसे इसे साधना आता हो। हमारे पढ़े-लिखे, काबिल उम्मीदवार अक्सर यहीं चूक जाते हैं। वे 'पॉलिसी' तो जानते हैं, लेकिन 'इम्प्लीमेंटेशन' का जो संघर्ष है—JE, XEN, थानेदार और पटवारी से काम करवाने का जो हुनर है—उसमें वे पिछड़ जाते हैं।
वोटर नासमझ नहीं है, वह विवश है। एक आम आदमी का पाला रोज़ पुलिस, सरकारी अस्पताल, राशन और पेंशन की लाइनों से पड़ता है। उसे वह नेता चाहिए जो सिस्टम की आंखों में आंखें डालकर उसका काम करवा सके।
अगर एक विद्वान उम्मीदवार अपनी कॉलोनी की ड्रेनेज समस्या के लिए अफ़सरों के चक्कर काटता रह जाए, तो जनता उसे अपना रक्षक कैसे मानेगी?
सच्चाई यह है: चुनाव 'योग्यता' (Degree) और 'क्षमता' (Capability) के बीच की लड़ाई है। और भारत में क्षमता का मतलब है—सरकारी तंत्र से काम निकलवाने की ताकत।
यह घोर निराशावादी स्थिति लग सकती है, लेकिन यही Ground Reality है।
जब तक हमारे प्रतिभाशाली लोग AC कमरों से निकलकर, ज़मीन पर उतरकर इस 'सरकारी घोड़े' की लगाम पकड़ना नहीं सीखेंगे, तब तक परिणाम नहीं बदलेंगे।
BallotboxIndia का उद्देश्य यही है। हम ख़बरों के पार उन कुछ लोगों को ढून्ढ रहे हैं जो इस घोड़े की सवारी करना जानते हैं।
ताकि कुछ ऐसा हो पाएं किअगली बार जब कोई पढ़ा-लिखा उम्मीदवार खड़ा हो, तो वह सिर्फ 'विद्वान' न हो, बल्कि 'विजेता' भी हो।
आपका क्या मानना है? क्या केवल अच्छी नीयत काफी है, या सिस्टम को साधने का हुनर ज़्यादा ज़रूरी है?
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