In the long run we are all dead अंततः तो हम सब मृत ही हैं.
1930 की महा मंदी के दौरान
प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड काएनिस का ये व्यक्तव्य पिछली शताब्दी
का एक ऐसा बड़ा व्यक्तव्य था, जिसने दुनिया के अर्थ, सामाजिक एवं राजनितिक
शास्त्र की दिशा मोड़ कर रख दी.
सन्दर्भ महामंदी का था और बात
थी पुराने अर्थशास्त्र के सिद्धांत की, जो कहता था –
अगर एक समाज और अर्थशास्त्र अपना प्राकृतिक बर्ताव ज़ारी रखे तो लम्बे समय में सब ठीक हो जाता है.
काएनिस का यह मानना था कि
आर्थिक मंदी या तेज़ी के समय संस्थागत हस्तक्षेप की ज़रुरत है. विश्व की सरकारों को
वित्तीय और मौद्रिक नीतियों द्वारा राष्ट्र एवं समाज की आर्थिक गति को नियत्रित
करना चाहिए. चेतावनी भी दी गयी थी कि यह एक दवा की तरह सख्त पर्यवेक्षण में ही दी
जाए.
आसान भाषा में काएनिस ने सही खुराक, परहेज़, आराम और प्राकृतिक
तरीकों से रोग ठीक करने और प्रतिरोधक क्षमता बनाने की जगह एंटी-बायोटिक की सलाह दी
थी और कहा था कि प्रो-बायोटिक के साथ डाक्टरी देखरेख में ही प्रयोग में लाया जाए.
आज इक्कीसवी सताब्दी में आज
जिस तरह एंटी बायोटिक का गैर ज़िम्मेदार इस्तेमाल अलग अलग तरह के सुपर-बग या
महा-बीमारियाँ उत्पन्न कर रहा है, उसी तरह इस अर्थशाश्त्र की सोच और इसके प्रचलन
ने पिछले सौ सालों में कई आर्थिक ब्लैक होल्स यानि सुरसा मुख बनाये हैं, जिसने
समाज को एक बड़े ही अनिश्चित मोड़ पर ला छोड़ा है.
गाँधी हों या कृष्ण दोनों
ने पुराने सिद्धांत का ही अनुसरण उचित बताया है. ग्राम स्वराज्य जो गाँधी जी की
प्रमुख नीति है या योग जनित प्रकृति अनुसार कर्म जो की कृष्ण की नीति है, अलग अलग
नहीं हैं.
गाँधी जी ने जहाँ माइक्रो
इकोनॉमिक्स यानि ज़मीन से जुड़े अर्थ एवं सामाजिक शास्त्र को उसके प्राकृतिक स्वाभाव
में ही सर्वोत्तम माना है, वहीँ भगवान विष्णु ने भी क्षीर सागर में बैठे बैठे
हस्तक्षेप करने की जगह प्राकृतिक रूप में अवतार ले कर ही लम्बे समय तक अपने जीवन
और कार्यों के द्वारा समाज की दिशा निर्धारित की है.
महात्मा गाँधी और कृष्ण
दोनों की ही प्रणाली समाज को धर्मं एवं प्रकृति के सही नियमों के साथ सह-अस्तित्व
की प्रेरणा देती है. यह सही परन्तु कठिन मार्ग दिखाता है, जो आम तौर पर लोक लुभावन
नहीं मगर उन्नत लोक जाग्रति पर निर्भर करता है.
महात्मा गांधी ने तो ना
सिर्फ अपने खाने पर ध्यान देने पर जोर दिया है, मगर पखाने के निस्तारण पर
भी पूरा ध्यान देने को बोला है. शारीरिक श्रम को मानसिक श्रम के समकक्ष ऊंचा स्थान
दे कर एक स्वनियंत्रित जीवन एवं विश्व में व्याप्त असमानता से लड़ने के कारगर सूत्र
सामने रखे.
समाज की सबसे छोटी इकाई
द्वारा पोषित संस्था और उनसे बनता राज्य और उसके बाद राष्ट्र और एक वैश्विक संरचना
की जो सोच गाँधी जी ने सामने रखी थी, उसके मूल में सही धारणीय ज्ञान आधारित समाज
था जो खुद को लम्बे समय में “सेल्फ-करेक्ट” यानि स्वयं सुधार करता था.
कुछ बड़ी संस्थाएं चाहे वो
बाज़ार पर कब्ज़ा जमाती बड़ी कपड़ा मिलें हों या रानी विक्टोरिया का सात समुन्दर पर का
राज– दोनों के खिलाफ़ गाँधी जी ने आवाज़ उठाई, क्योंकि ये दोनों ही तरीके क्षणिक लाभ
और लालच को ग़लत ज्ञान के ठेले पर रख भारत के आम और खास जन को परोसे गए थे.
भारत में आज का गांधी बनाम
गूगल
यहाँ काएनिस के सिद्धांत के
बारे में ये जान लेना ज़रूरी है कि उन्होंने ना सिर्फ बुरे समय में सरकारी
हस्तक्षेप की बात की थी बल्कि जब स्थिति सुधार जाए तब सरकार उन्ही हस्तक्षेपों को
वापस भी करे, ऐसा भी कड़े शब्दों में बोला था.
उदाहरण के लिए अगर खरीदारों
में अति-उपभोग से विरक्ति छाई हुई हो जिससे फैक्ट्री बंद हो गयी हो, तब फैक्ट्री मालिक
को सरकार द्वारा पैसे दिए जाएँ जिससे फैक्ट्री में श्रमिक भर्ती किये जाएँ और
नकारात्मकता के माहौल को खुशनुमा कर दिया जाये. इसमें शर्त ये थी की जैसे ही सब
ठीक हो जाए, सरकारें इस अतिरिक्त प्रोत्साहन को नीतिगत और मौद्रिक
हस्तक्षेप कर के वापस ले जिससे यथास्थिति वापस आ सके. यानि युधिस्ठिर की तरह आधा
सत्य बोला जाए और द्रोण वध पश्चात धर्म के नाम का प्रायश्चित कर लिया जाए.
आज जो वैश्विक महा मंदी की
बात की जाती है, जो हर बार पिछली मंदी से बड़ी बन कर आती है, इसी गलत सूचना के
प्रवाह पर आधारित है.
जिस तरह महाभारत में एक
अर्धसत्य का फल अराजक अनैतिकता थी, जिसमे एक झूठ के बाद छल और
झूठ को जैसे एक खुली छूट मिल गयी हो.
उसी तरह राजनीतिक दल जो
व्यापारियों के चंदे पर चुनाव लड़ती हैं और जिनका ध्येय जनता को खुश कर वोट पाना
होता है कभी भी काएनिस के संस्थागत आर्थिक हस्तक्षेप के कठिन भाग यानि अप्राकृतिक, संस्था जनित उन्माद
को पूरी तरह वापस नहीं ले पायीं.
परिणाम -
-आज की भीमकाय असमानता - जब
दुनिया के सिर्फ़ एक प्रतिशत (1%) लोग आज इक्यासी प्रतिशत (81%) संपत्ति मालिक हैं.
-पर्यावरण संकट और वैश्विक
तापमान का बढ़ना, बढती प्राकृतिक आपदाएं.
-समाज का नैतिक पतन, लाभ उन्माद और अति
उपभोक्तावाद.
कारण –
समाज में सही सूचना और
ज्ञान आधारित गहन चिंतन जनित सतत नीतियों के स्थान पर लोक लुभावन संस्थागत
प्रोत्साहन जनित बाज़ार आधारित नीतियां और जन चेतना.
इसी कृष्ण और गांधी नीति
विरुद्ध सिद्धांत का भीमकाय रूप है गूगल.
जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात
कहो रात कहेंगे.
-
इन्दीवर जी का एक पुराना
गीत.
डाटा जिससे जानकारी या
ज्ञान बनता है कि इस वैश्विक महायुद्ध का सबसे बड़ा खिलाड़ी गूगल है और इसके इस
विशालकाय रूप के पीछे इन्दीवर जी का ये गीत पूरी तरह फिट बैठता है.
अमेरिकी कॉलेज में एक
सर्वेलेंस तकनीक की तरह शुरू हुए प्रोज़ेक्टगूगल या इसपर आधारित अन्य मार्केटिंग
अविष्कारों जैसे फेसबुक इत्यादि के पीछे का मूल सिद्धांत ही है, जिसको जो पसंद
वैसी ही दुनिया उसको दिखाई जाए, एक उन्मादी माहौल बना कर बाज़ार बढ़ाया जा सके.
इसमें काएनिस के क्षणिक
उन्माद वाले आसान भाग को तो ज़बरदस्त बढ़ावा दिया, मगर कठिन भाग के लिए कोई गुंजाइश
ही नहीं छोड़ी.
गूगल ने एक आम नागरिक तक के
इनफार्मेशन गेटवे पर कब्ज़ा ज़माने के लिए जिस तरह के उन्नत और युद्ध स्तरीय तकनीक
का इस्तेमाल किया है वह काबिले गौर तो है. यूरोप और चीन में होते गूगल पर वाद
विवाद, क़ानूनी कार्यवाही इत्यादि को देखें तो पता चलता है किस तरह
गूगल दुनिया के मानस पर कब्ज़ा जमा लेने के लिए एक वृहत प्लानिंग के साथ काम करता
है.
गूगल गांधी के हर सिद्धांत को तोड़ता है.
छोटे स्वरोज़गार के समाप्त
होते अवसर, महाकाय अमीर एवं सर्व समर्थ
व्यापारियों को बढ़ावा –
छोटे स्थानीय व्यापार आज
ग्राहकों के लिए सीधे बड़े वैश्विक व्यापारिओं से स्पर्धा में आ गए हैं. गूगल पर स्थापित
होना एक महंगा और तकनीकी खेल है जो बड़े व्यवसाय ख़ासकर विदेशी जैसे अमेरिका या
यूरोपियन आसानी से खेल पाते हैं. छोटे कुटीर उद्योग जो भारत जैसे देश की आर्थिक
रीढ़ है, इस व्यवस्था में दम तोड़ सकते हैं. अमेरिका खुद इसका एक भुक्तभोगी रहा है
जहाँ “विनर टेकस आल” यानि सर्व-दमनकारी विजेता प्रणाली ने सह अस्तित्व का
स्थान ले लिया है.
स्थानीय ज्ञान एवं प्रज्ञा की
हानि –
गूगल पर उसी का ज्ञान ऊपर
आता है जो पैसा खर्चा करता है और सही तकनीकी टीम के साथ लगातार काम करता है. यही
कारण है की स्थानीय छोटे कार्यकर्त्ता, सामाजिक नवप्रवर्तक जो सही में जानकारी और
ज्ञान रखते हैं, बड़ी प्रोपगंडा और पी. आर. एजेंसी के सामने टिक ही नहीं
पाते. छोटे अख़बार, पत्रिकाएँ इत्यादि भी गूगल की ही भेंट चढ़ जाती हैं.
भ्रमित एवं मूढ़ होते आम जन –
गाँधी के आवर्तनशील
सिद्धांतो की सफलता के लिए आम जन को स्थानीय प्रज्ञा के साथ सतत ज्ञान की लगातार
तलाश आवश्यक है, नागरिक के मानसिक पटल पर काबिज़ होता गूगल इसमें एक बड़ी
बाधा है. आज सीधे रास्ते पर भी गूगल के नक़्शे और मार्गदर्शन ले कर चलने वालों की
तादात लगातार बढती जा रही है.
विदेशी सॉफ्ट उपनिवेशवाद –
अमेरिका में ट्रम्प चुनाव
के दौरान सीमा पार से रूस द्वारा गूगल, फेसबुक, ट्विटर का इस्तेमाल कर
हस्तक्षेप किया गया, ये किसी भी सार्वभौम राष्ट्र के लिए एक चुनौती प्रस्तुत
करता है. आज के इस डिजिटल युग में अपने समाज के मानस की बागडोर गूगल जैसी कंपनी को
देना किसी भी देश के लिए आत्मघाती हो सकता है.
हर देश को और उस देश के
स्थानीय तकनीकी व्यवसायिओं को अपने समाज के हिसाब से सर्च इंजन बनाना चाहिए और एक
सार्वजनिक सुविधा की तरह नागरिकों को प्रदान करना चाहिए, मगर ऐसा गूगल को राष्ट्र
के उन्मुक्त बाज़ार में खुल्ला हाथ दे कर संभव ही नहीं है.
विश्व में चल रहा डाटा का ये महायुद्ध हर राष्ट्र को अपनी सूचनानीति तय करने के लिए विवश कर रहा है, भारत कृष्ण और गांधी का देश है और ये मूल्य काफी गहराई तक हमारी संस्कृति में बसे हुए हैं, ये मूल्य गूगल और काएनिस जिस धरती से आये हैं उनसे काफी अलग हैं. सैन्य संस्कृति एवं उपनिवेशवाद आधारित अति-व्यक्तिवादी समाज में ये सिद्दांत कारगर हो सकते हैं, मगर भारत जैसे राष्ट्र पर पड़ते गूगल के प्रभाव को आंकना होगा और क्षणिक मनोरंजन और लाभ से ज्यादा दीर्घ कालीन नीति लाभ-हानि की सही परिभाषा के साथ सामने लानी होगी.
I write and speak on the matters of relevance for technology, economics, environment, politics and social sciences with an Indian philosophical pivot.