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महानंदा नदी अपडेट - महानन्दा परियोजना तथा बाढ़ नियंत्रण की वास्तविक स्थिति

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  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • October-30-2018

महानन्दा परियोजना तथा बाढ़ नियंत्रण की वास्तविक स्थिति

महानन्दा बाढ़ नियंत्रण परियोजना को उत्तर बिहार की घटिया बाढ़ नियंत्रण योजना तो नहीं कहा जा सकता क्यों कि इस के दावेदार अन्य बहुत से प्रकल्प हैं पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह एक बिना नफ़ा नुकसान के पूर्व चिन्तन की बनाई हुई बाढ़ नियंत्रण परियोजना है। वैसे भी महानन्दा, कारी कोसी, सौरा, गंगा तथा बरण्डी नदियों तक के विस्तृत इस क्षेत्र में बाढ़ तथा जल जमाव की समस्या पहले से ही थी। अत्यधिक वर्षा, नदियों और उनके संगम की स्थिति, और नदियों के तल के बहुत कम ढलान के कारण पानी की निकासी की समस्या भी पहले से थी। कटिहार से पाँच दिशाओं में निकलने वाली रेल लाइनों के बाँधों के कारण समस्या और भी गम्भीर हो रही थी। ऐसे में जल निकासी की व्यवस्था की जगह नदियों पर तटबन्धों के निर्माण से स्पष्टतः यह समस्या और भी गंभीर होने वाली थी। यह मान भी लिया जाय कि यह तटबन्ध कभी नहीं टूटते तो भी उत्तर में कटिहार-मालदा रेल लाइन, दक्षिण में गंगा नदी पर तटबन्ध, पूर्व में महानन्दा पर तटबन्ध तथा पश्चिम में कारी कोसी नदी पर बने तटबन्धों के बीच वर्षा का ही पानी घिर जाने वाला था जिसकी निकासी के लिये कोई व्यवस्था नहीं थी। कुछ ऐसी ही स्थिति कारी कोसी, बरण्डी और गंगा पर बनने वाले तटबन्धों के बीच में होने वाली थी। जल निकासी की इस बिगड़ती हुई स्थिति को समझने के लिये किसी का इंजीनियर होना जरूरी नहीं है। परन्तु जिन लोगों में अधिकृत रूप से यह लियाकत थी उन्होंने इस समस्या की अनदेखी कर दी। तटबन्धों के अन्दर बँधी नदी के पानी से भी बचाव तभी तक था जब तक कि तटबन्ध सुरक्षित थे जो कि जाहिर है कभी नहीं रहे। नतीजा यह हुआ कि बाढ़ के पानी को जिसे कहा जाता था कि वह एक सप्ताह से दस दिन तक टिका रहता है और नदी पर तटबन्ध बनाकर इस मियाद को दो दिन तक का कर दिया जायेगा वही पानी अब महीनों तक के लिए अटक गया। महानन्दा प्रणाली पर तटबन्धों के निर्माण के बाद की बदली परिस्थितियों ने अपने ढंग की नई समस्याएँ पैदा की जिससे लोग अभी तक नावाकिफ थे। परियोजना पर काम शुरू होने के कुछ वर्षों के अन्दर ही पहली अगस्त 1975 को मुरादपुर गाँव के क्रुद्ध निवासियों ने महानन्दा के बेलगच्छी - झौआ तटबन्ध को राष्ट्रीय उच्च पथ-31 के निकट काट डाला क्योंकि तटबन्धों के बीच नदी का उच्चतम बाढ़ तल खतरनाक ऊँचाई तक बढ़ गया था और इससे उन्हें अपना अस्तित्व मिटता दिखाई पड़ा। धीरे-धीरे यह दरार 200 मीटर तक चौड़ी हो गई और तटबन्धों के बाहर बहते नदी के पानी के कारण कदवा, प्राणपुर, मनिहारी, आजमनगर और अमदाबाद प्रखण्डों के निचले इलाकों में फसल और सम्पत्ति की व्यापक क्षति हुई। एक हजार से अधिक मजदूरों को दरार को और अधिक चौड़ा होने से रोकने के लिये लगाना पड़ा, साथ ही तटबन्धों पर दिन रात चौकसी रखने की व्यवस्था को मजबूत करना पड़ा था। महानन्दा तटबन्धों के कटाव की इस पहली घटना का दायित्व असामाजिक तत्वों पर डाल दिया गया था।

महानन्दा
परियोजना तथा बाढ़ नियंत्रण की वास्तविक स्थिति मह

1976 स्थानीय मानदण्डों के आधार पर यद्यपि एक सूखे का वर्ष था तथापि महानन्दा का बायाँ तटबन्ध 21 अगस्त को बहरखाल के पास खुद ही टूट गया। इस दरार के कारण आजमनगर के आधा दर्जन से अधिक गाँवों को तबाही झेलनी पड़ी जो कि दरार के मुहाने पर पड़ते थे। 1978 में शेखपुरा के पास तटबन्ध में भीषण कटाव शुरू हुआ पर दुर्घटना तब रुकी जब आसपास के गाँवों के लोगों ने कटाव रोकने में सिंचाई विभाग के कर्मचारियों का हाथ बटाया। 1980 में दरार कारी कोसी के कटिहार-मनिहारी-काँटाकोश रेलवे बाँध में पड़ी जबकि 1981 में चाँदपुर गाँव के पास महानन्दा के पश्चिमी तटबन्ध की बखिया कई जगहों पर उधड़ गई थी जिससे कटिहार शहर को खतरा पैदा हो गया। कटाव स्थलों से बहता हुआ पानी इस वर्ष कदवा, प्राणपुर और आजमनगर प्रखण्डों की 43 ग्राम पंचायतों को समेट चुका था। 1982 में गंगा नदी पर बना कुरसेला-जौनियाँ-बरण्डी तटबन्ध 9 सितम्बर को मघेली गाँव के पास टूटा जिससे दर्जनों गाँव बहते पानी की चपेट में आये। महानन्दा का बायाँ तटबन्ध 1983 में एक बार फिर बहरखाल के पास टूटा जिससे 1976 में हुई तबाही की पुनरावृत्ति हुई।

महानन्दा
परियोजना तथा बाढ़ नियंत्रण की वास्तविक स्थिति मह

बल के पास महानन्दा वर्ष 1984 में गंगा नदी के उत्तरी छोर पर बना तटबन्ध 8 अगस्त को चौकिया पहाड़पुर के पास टूटा जिससे अमदाबाद, प्राणपुर, मनिहारी तथा कटिहार प्रखण्डों की पाँच लाख आबादी पानी में फँसी। कटिहार शहर के डूबने का खतरा पैदा हुआ और सेना को सतर्क रहने के लिये उस वक्त कहा गया जब सिकटिया के पास भी तटबन्ध टूटने का अंदेशा पैदा हो गया। सिकटिया और उसके आस-पास के गाँवों के लोगों को गाँव छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर चले जाने की हिदायत दे दी गई थी। इस घटना के काफी पहले 15 जून को महानन्दा तटबन्ध धबौल के पास टूट चुका था जिससे कटिहार जिले के प्राणपुर और आजमनगर प्रखण्ड तो डूबे ही साथ ही साथ पश्चिम बंगाल के मालदा जिले को भी खतरा पैदा हो गया। राहत और बचाव कार्यों के लिये यहाँ भी सेना की मदद लेनी पड़ गई थी। खतरा तो झौआ के रेल पुल पर भी था पर किसी प्रकार की कोई दुर्घटना नहीं हुई। इस बाढ़ में सेना की एक नौका दुर्घटना में कटिहार के एक अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट तथा उनके एक चपरासी की मृत्यु हो गई। यह लोग नाव से सिकटिया के निकट दुर्गापुर से धबौल तक की यात्रा पर थे। दुर्भाग्य ग्रस्त इन लोगों की लाशें तीन दिन बाद सिकटिया दियारा के पास पाई गईं। 1985 में महानन्दा तटबन्धों पर तीन स्थानों पर जबर्दस्त कटाव शुरू हुआ। सिकटिया, धबौल और गोबिन्दपुर के इन कमजोर स्थलों पर किसी दुर्घटना को सम्भवतः इसलिये रोका जा सका क्योंकि कोसी क्षेत्र के तत्कालीन कमिश्नर स्वयं रुचि लेकर इन स्थानों पर लगभग जमे रहे और खुद बचाव तथा निर्माण कार्य की देखभाल करते रहे। वर्ष 1987 में लगभग पूरे उत्तर बिहार में अगस्त महीने में जबर्दस्त बारिश हुई। कटिहार में भी जहाँ कि अगस्त माह में औसत वर्षा 307.8 मि०मी० हुआ करती है इस बार 914.2 मि०मी० दर्ज की गई। इसी अनुपात में वर्षा कटिहार के उत्तरी क्षेत्र पूर्णियाँ तथा नेपाल की तराई में भी एक साथ हुई जिसके कारण उत्तर में स्थित पूर्वी कोसी मुख्य नहर प्रणाली की धज्जियाँ उड़ गईं। इतना ही नहीं, पूर्णियाँ जिले के सड़क तन्त्र को व्यापक नुकसान हुआ। यह सारा पानी कूदते फाँदते झौआ वाले क्षेत्र में आया जहाँ कम से कम आठ जगहों पर महानन्दा का तटबन्ध टूटा और नदी के उफनते पानी ने प्राणपुर, कदवा, कोढ़ा, आजमनगर, फलका, बारसोई, मनिहारी तथा अमदाबाद प्रखण्डों को घेर लिया। कुल मिलाकर महानन्दा के तटबन्ध इस बार 22 स्थानों पर टूटे थे जिसमें पूर्णिया के बायसी प्रखण्ड के अमला, मुरादपुर, बहुआरी, बाकपुर और निखरैल सहित 8 स्थल शामिल हैं। कदवा प्रखण्ड में भी यह तटबन्ध 8 स्थानों पर टूटे। आजम नगर में सिकटिया के पास, अमदाबाद में 492 से 504 चेन के बीच में तथा फलका में 4 स्थानों पर तटबन्धों के चिथड़े उड़ गये। कोसी का जौनियाँ कुरसेला तटबन्ध बरारीं प्रखण्ड में गुमटी टोला के पास तथा कटिहार नगर सुरक्षा बाँध हाजीपुर, बहुचक तथा बरमसिया गाँव के पास तीन स्थानों पर टूटा। महानन्दा तटबन्ध में सबसे बड़ी दरार कचौरा गाँव के पास पड़ी जहाँ पानी तटबन्ध के ऊपर से होकर बह गया। यह सारा पानी अब महानन्दा के पश्चिमी तटबन्ध और गंगा के उत्तरी तटबन्ध के बीच फंस गया। परिस्थिति में सुधार तब हुआ जब मनिहारी प्रखण्ड के मेदिनीपुर और आजमपुर टोल गाँव के पास क्रुद्ध गाँव वालों ने गंगा का तटबन्ध 19 अगस्त को काट दिया और पानी गंगा के माध्यम से निकलना शुरू हुआ। कटिहार-बारसोई रेल लाइन कम से कम बारह स्थानों पर धुल गई और कुरैठा रेलवे स्टेशन के पास का रेल पुल ऐसा बहा कि उसके छः पायों में से यादगार के तौर पर मात्र एक पाया बचा। गंगा का उत्तरी तटबन्ध भी इस साल की बाढ़ से अछूता नहीं बचा और तीन स्थानों पर उसमें भी दरारें पड़ीं।

महानन्दा
परियोजना तथा बाढ़ नियंत्रण की वास्तविक स्थिति मह

महानन्दा बाढ़ नियंत्रण परियोजना और उससे होने वाले तथाकथित लाभ से आजिज आकर कदवा प्रखण्ड के बृन्दाबाड़ी गाँव के बाशिन्दों ने अपना विरोध दर्ज करने के लिये एक नायाब रास्ता चुना। उन्होंने टूटे तटबन्ध पर नगाड़े लगा दिये जिससे कि यदि कोई सिंचाई विभाग का कर्मचारी तटबन्ध की मरम्मत के लिये नाप जोख करता दिखाई पड़े तो नगाड़े बजाकर गाँव वालों को इकट्ठा किया जा सके और इन बेवक़्त की बदलियों से फुर्सत पाई जा सके।

1988 में यद्यपि किसी नये स्थान पर तो तटबन्ध नहीं टूटा पर पिछले वर्ष की व्यापक क्षति के कारण बहुत से स्थानों पर मरम्मत का काम पूरा नहीं हो पाया था। इस बार ऐसे ही स्थानों से पानी घुसना शुरू हुआ और एक बार फिर कदवा, अमदाबाद और बरारी प्रखण्ड बाढ़ की चपेट में आये। पानी की अधिक आमद के कारण इस बार का उच्चतम बाढ़ तल पिछले वर्ष से ज्यादा था जिसके कारण राहत और बचाव कार्यों के लिये सेना बुलानी पड़ गई। बताया जाता है कि बृन्दाबाड़ी, सिकटिया, धबौल और कुरसेल के पास पानी की शीघ्र निकासी के लिये गाँव वाले तटबन्ध काट देने पर आमादा थे पर उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए पुलिस को कई चक्र गोलियाँ चलानी पड़ीं और तब भीड़ को तितर बितर किया जा सका।

वर्ष 1989 में दिक्कत तब शुरू हुई जब 23 जुलाई को कुछ असामाजिक तत्वों ने कोसी परियोजना की कुरसैला नहर को 84वि० दू० पर पूर्णियाँ के धमदाहा प्रखण्ड में काट दिया। नहर का यह हिस्सा कोसी नहर प्रणाली के सिरसी सब-डिवीजन के मीरगंज क्षेत्र में पड़ता है। इससे कटिहार के फलका प्रखण्ड में बाढ़ की स्थिति पैदा हो गयी और यह तब जब कि दुर्घटना का स्रोत एक दूर दराज इलाके में था।

(उपर्युक्त लेख डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक "बंदिनी महानंदा" से उद्घृत किया गया है)

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