2004 में उत्तर बिहार
में भयंकर बाढ़ आई थी, जो जुलाई के दूसरे हफ्ते से लेकर अगस्त के
दूसरे हफ्ते तक बनी रही. महीने भर हेलीकाप्टर से राहत सामग्री गिराई जाती रही, हालात इतने बुरे थे. इस काम में चाहे
जितनी भी कोशिश की जाए कुछ इलाके तो छूट ही जाते हैं. ऐसे में दरभंगा जिले के
मनीगाछी प्रखंड का उजान गाँव भी किसी किस्म की राहत से अछूता रह गया था. राहत की
उम्मीद बांधे उजान के लोग तंग आकर एक दिन अपने गाँव से गुज़रने वाली सड़क और पास के
लोहना रोड रेलवे स्टेशन पर 16 अगस्त के दिन
धरना देने के लिए बैठ गए. दरभंगा–झंझारपुर के बीच
रेल सेवा बंद हो गयी और सड़क मार्ग भी बंद हो गया. प्रशासन जाम हटाने के लिए आया तो
जरूर मगर प्रदर्शनकारियों के साथ बहस किसी तरह से पहले बातचीत फिर धक्का-मुक्की और
बाद में धूम-धडाम से होती हुई गोली चलने तक पहुँच गयी. गाँव के तीन लोग मारे गए.
धरना फिर भी 19 अगस्त तक चला और तब जाकर कहीं बाढ़
पीड़ितों और प्रशासन में बोलचाल फिर शुरू हुई और धरना समाप्त हुआ.
बाढ़ के समय राहत क्या क्या रंग दिखाती है, उसका
किस्सा लिखने बैठा तो पटना से प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान अखबार में इस 20 अगस्त की एक रिपोर्ट पर नज़र पड़ी. हेमंत कुमार
लिखित यह रिपोर्ट थी जिसका शीर्षक था ‘उजान
में पस्त लालू की रेल - राबड़ी की सरकार’. समस्या विकट थी, पर रिपोर्ट अच्छी लगी
जिसे शेयर कर रहा हूँ.
हेमंत कुमार लिखते हैं, उजान
में न लालू की रेल है और न राबड़ी की सरकार. यहाँ दोनों फेल हैं. रेल की पटरियों पर
जनता ने कब्ज़ा जमा रखा है. लिहाजा रेलवे प्रशासन ने इस (दरभंगा-झंझारपुर) रेल खंड
पर चलने वाली दो जोड़ी पैसेंजर गाड़ियों का परिचालन अगले आदेश तक रद्द कर दिया है.
ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार लोहना रोड स्थित रेल गुमटी पर अनिश्चितकालीन चक्का जाम
उजान पंचायत के ग्रामीणों और दरभंगा जिला पुलिस के बीच हुए समझौते के बाद समाप्त
कर दिया गया. समझौते के तहत जिलाधिकारी ने मुखिया पर थाने में मुकद्दमा दर्ज़ करने
की अपील ग्रामीणों से की. उन्होनें पुलिस और प्रशासन की एक संयक्त जांच कमिटी का
गठन कर पूरे मामले की सघन छानबीन करने का भी आश्वासन दिया. उजान के लोग अब खून सना
राहत का अनाज नहीं, इन्साफ चाहते
थे. उन्हें अपने उन दो मासूम निर्दोष बेटों की ह्त्या का हिसाब चाहिए जिन्हें 16 अगस्त को पुलिस की गोलियों ने मौत के नींद
सुला दी. लेकिन प्रशासन है कि उजान वालों से नज़रें मिलाने तक की हिम्मत नहीं जुटा
पा रहा है. शायद प्रशासन का अपराधबोध उसे उजान जाने से रोक रहा है.
“डी.एम.एस.पी. आज तक पीड़ित परिवार के लोगों के बीच नहीं पहुंचे हैं. सकतपुर का थानेदार फरार है. पुलिस फायरिंग में मारे गए नौजवान श्यामसुंदर कामती के बाबा बौकू कामती कहते हैं, बगल में पोस्ट ऑफिस है और सामने रेलवे स्टेशन. चाहते तो सबमें आग लगा देते. लेकिन हमारा यह मकसद नहीं था. हमारे गाँव के लोग राहत में मुखिया की मनमानी के खिलाफ ट्रेन रोक कर धरना पर बैठे थे. ट्रेन की बोगी तक को किसी ने कोई नुकसान नहीं पहुँचाया. जलियांवाला बाग़ की तरह चारों तरफ से घेर कर पुलिस ने हमलोगों पर गोलियां चलाईं. हम लोगों ने राहत के बदले गोली खाई है. अब हमें राहत का अनाज नहीं, इन्साफ चाहिए. जुल्मी मुखिया, सी.ओ. और दरोगा को सरकार सज़ा दे. हम सरकार से कोई लड़ाई नहीं चाहते, लेकिन कोई बात तो करने आये. उपेन्द्र कामती को अपने भाई घूरन कामती की चिंता सता रही है. पुलिस की गोलियों से घायल घूरन 16 तारीख से डी. एम्. सी. एच. में भरती है.
(उपर्युक्त लेख डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की फेसबुक टाइमलाइन से उद्घृत है.)
I write and speak on the matters of relevance for technology, economics, environment, politics and social sciences with an Indian philosophical pivot.