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कोसी नदी - बाढ़ रोकने की कहानी

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  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • August-31-2018

“इससे पहले हमने कोसी की बाढ़ और उसकी भयावहता के बारे में पढ़ा अब क्रमवार तरीके से इस बाढ़ को रोकने और उसके प्रयास को पढेंगे साथ ही जानेंगे उसके दुष्प्रभाव को भी।” 

बरसात के मौसम में नदी में ज्य़ादा पानी आ जाने के कारण वह अपने  किनारे तोड़ कर बहती है और उसका पानी एक बड़े इलाके पर फैल जाता है। इस पानी से बचाव का सबसे आसान तरीका है कि नदी और बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों के बीच एक दीवार खड़ी कर दी जाये। यह काम व्यक्तिगत तौर पर शुरू-शुरू में नदी के किनारों पर बसे लोग अपने घरों के चारों ओर घेरे की शक़्ल में बांध बना कर करते रहे होंगे। मगर सभी लोग ऐसा ही करने लगें तब क्या होगा? वह तो अपनी समस्या का समाधान शायद जरूर कर लेंगे पर पड़ोसी की समस्या को गंभीर बना देंगे क्योंकि अब उसे पहले से ज़्यादा पानी से निबटना पड़ेगा। वह अपने घर के इर्द-गिर्द बने घेरे को ज्य़ादा ऊँचा और ज्य़ादा मजबूत बनाने के लिए मजबूर होगा। यह एक कभी न रुकने वाला सिलसिला। आखि़रकार एक न एक दिन सारे लोग यह विचार करने के लिए एक साथ बैठेंगे कि अकेले-अकेले बाढ़ से नहीं लड़ा जा सकता और इसके लिए कुछ सामूहिक प्रयास करना पड़ेगा। उस समय घरों को घेरने वाले बांध गिराये गये होंगे और गाँवों के चारों ओर घेरा बांध बनाया क्रमवार  गया होगा। यह कोशिश निश्चित रूप से एक नई समस्या को जन्म देने वाली थी। अब तक जो परेशानियाँ अलग-अलग घरों के बीच थीं वह गाँवों के बीच में पैदा होने लगेंगी। इस तरह से बाढ़ की समस्या का समाधान खोजते हुये आदमी अपने घर से गाँव तक, फिर गाँव से गाँवों के समूहतक और उसके बाद फरियाद लेकर अपने सरदार या राज-सत्ता तक पहुँचा होगा ताकि उसकी तकलीफें कम हो सकें। इस तरह की घटना की पुष्टि संयुक्त राज्य अमेरिका में मिस्सिसिप्पी घाटी में उपनिवेश स्थापित होने के बाद की बस्तियों के विस्तार के समय होती है। तब गाँवों और घरों के किनारे बने रिंग बाँधों के बीच इतनी कम जगह बची थी कि उनके बीच से गुज़रने वाला नदी की बाढ़ का पानी काफी तेज़ रफ़्तार से बहता था और भारी तबाही मचाता था। वहाँ की सरकार को मजबूर होकर इस तरह के रिंग बाँधों के बीच के गैप को भरना पड़ा और इस तरह जाने अनजाने नदी के किनारे अपने आप तटबन्ध बन गये।

नदियों पर तटबंध बनाना व्यवहारिक तौर पर कितना सही 

बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबन्धों के निर्माण और उनकी भूमिका तथा इस मसले पर पक्ष और विपक्ष की बहस में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफी है कि मुक्त रूप से बहती हुई नदी की बाढ़ के पानी में काफी मात्रा में गाद (सिल्ट/बालू/पत्थर) मौजूद रहती है। बाढ़ के पानी के साथ यह गाद बड़े इलाके पर फैलती है। नदियाँ इसी तरीके से भूमि का निर्माण करती हैं। तटबन्ध पानी का फैलाव रोकने के साथ-साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं और नदियों के प्राकृतिक भूमि निर्माण में बाधा पहुँचाते हैं। अब यह गाद तटबन्धों के बीच ही जमा होने लगती है जिससे नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठना शुरू हो जाता है और इसी के साथ तटबन्धों के बीच बाढ़ का लेवेल भी ऊपर उठता है। नदी की पेटी लगातार ऊपर उठते रहने के कारण तटबन्धों को ऊँचा करते रहना इंजीनियरों की मजबूरी बन जाती है मगर इसकी भी एक व्यावहारिक सीमा है। तटबन्धों को जितना ज्य़ादा ऊँचा और मजबूत किया जायेगा, सुरक्षित क्षेत्रों पर बाढ़ और जल-जमाव का ख़तरा उतना ही ज्य़ादा बढ़ता है।

तटबन्धों के बीच उठता हुआ नदी का तल और बाढ़ का लेवेल तटबन्धों के टूटने का कारण बनते हैं। यह दरारें तटबन्धों के ऊपर से होकर नदी के पानी के बहाव, तटबन्धों से होने वाले रिसाव या तटबन्धों के ढलानों के कटाव के कारण पड़ती हैं। तटबन्धों के टूटने की स्थिति में बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में तबाही का अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। कभी-कभी चूहे, लोमड़ी या छछूंदर जैसे जानवर तटबन्धों में अपने बिल बना लेते हैं। नदी का पानी जब इन बिलों में घुसता है तो पानी के दबाव के कारण तटबन्धों में छेद हो जाता है और वह टूट जाते हैं।

किसी भी नदी पर तटबन्धों के निर्माण के कारण उस नदी की सहायक धाराओं का पानी मुख्य नदी में न जाकर बाहर ही अटक जाता है। बाहर अटका हुआ यह पानी या तो पीछे की ओर लौटने पर मजबूर होगा या तटबन्धों के बाहर नदी की दिशा में बहेगा। दोनों ही परिस्थितियों में यह नए-नए स्थानों को डुबोयेगा जहाँ कि, मुमकिन है, अब तक बाढ़ न आती रही हो। इस समस्या का जो जाहिर सा समाधान है वह यह कि जहाँ सहायक धारा तटबन्ध पर पहुँचती है वहाँ एक स्लुइस गेट बना दिया जाय। लेकिन स्लुइस गेट बन जाने के बाद भी उसे बरसात के मौसम में खोलना समस्या होती है क्योंकि अगर कहीं मुख्य धारा में पानी का लेवेल ज़्यादा हुआ तो उसका पानी उलटे सहायक धारा में बहने लगेगा और अनियंत्रित स्थिति पैदा करेगा। अपने निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर अक्सर स्लुइस गेट जाम हो जाया करते हैं क्योंकि फाटकों के सामने नदी साइड में बालू जमा हो जाता है। इस तरह से स्लुइस गेट के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता और सहायक धारा का पानी कन्ट्रीसाइड के सुरक्षित क्षेत्रों में फैलता ही है। इस स्लुइस गेट का संचालन बरसात समाप्त होने के बाद ही हो पाता है जब नदी में पानी का स्तर काफी नीचे चला जाय। इस समय तक जो नुकसान होना था वह हो चुकता है। 

जब स्लुइस गेट काम नहीं कर पाते हैं तो अगला उपाय बचता है कि सहायक धाराओं पर भी तटबन्ध बना दिये जायें जिससे कि बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में उनका पानी न फैले। ऐसा कर देने पर मुख्य नदी के तटबन्ध और सहायक धारा के तटबन्ध के बीच वर्षा का जो पानी जमा हो जाता है, उसकी निकासी का रास्ता ही नहीं बचता। यह पानी या तो भाप बन कर ऊपर उड़ सकता है या ज़मीन में रिस कर समाप्त हो सकता है। तीसरा रास्ता है कि इस अटके हुये पानी को पम्प कर के किसी एक नदी में डाल दिया जाय। अब अगर पम्प कर के ही बाढ़ की समस्या का समाधान करना था तो मुख्य नदी, सहायक नदी पर तटबन्ध और स्लुइस गेट बनाने की क्या जरूरत थी? और अगर कभी दुर्योग से इन दोनों तटबन्धों में से कोई एक टूट गया तो बीच के लोगों की जल-समाधि निश्चित है।

कभी-कभी तटबन्ध के कन्ट्री साइड में बसे लोग जल-जमाव से निज़ात पाने के लिए तटबन्धों को काट दिया करते हैं। इसके अलावा न तो आज तक कोई ऐसा तटबन्ध बना और न ही इस बात की उम्मीद है कि भविष्य में कभी बन भी पायेगा जो कभी टूटे नहीं। यह दरारें तटबन्ध तकनीक का अविभाज्य अंग हैं जिनके चलते कन्ट्री साइड के तथाकथित सुरक्षित इलाकों में बसे लोग अवर्णनीय कष्ट भोगते हैं और जान-माल का नुकसान उठाते हैं।

तटबन्धों के कारण बारिश का वह पानी जो कि अपने आप नदी में चला जाता वह तटबन्धों के बाहर अटक जाता है और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता है। तटबन्धों से होकर होने वाला रिसाव जल-जमाव को बद से बदतर स्थिति में ले जाता है। इसके अलावा नदी की बाढ़ के पानी में ज़मीन के लिए उर्वरक तत्व मौजूद होते हैं। बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने की वज़ह से यह उर्वरक तत्व भी तटबन्धों के बीच ही रह जाते हैं। इस तरह से ज़मीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। उर्वराशक्ति में गिरावट की भरपाई रासायनिक खाद से की जाने लगी है जिसका खेतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और इस तरह के खाद की कीमत अदा करनी पड़ती है।

कभी-कभी स्थानीय कारणों से नदी के एक ही किनारे पर तटबन्ध बनाने पड़ते हैं। ऐसे मामलों में बाढ़ का पानी नदी के दूसरे किनारे फैल कर तबाही मचाता है और साथ में उपर्युक्त सारी दिक्कतें तो मौजूद रहती ही हैं। तटबन्धों द्वारा बाढ़ का नियंत्रण करना अपने आप को एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसाना है जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल होता है। 

उधर इंजीनियरों के एक बड़े वर्ग का विश्वास है कि नदी पर जब तटबन्ध बना दिया जाता है तो उसकी पानी के निकासी का रास्ता कम होने से पानी का वेग बढ़ जाता है। धारा का वेग बढ़ जाने से नदी की कटाव करने की क्षमता बढ़ जाती है और वह अपने दोनों किनारों को काटना आरंभ कर देती है और अपनी तलहटी को भी खंगाल देती है जिससे उसकी चौड़ाई और गहराई दोनों बढ़ जाती है और उसका जलमार्ग पहले से कहीं ज़्यादा हो जाता है। नतीजतन नदी में पहले से कहीं ज़्यादा पानी प्रवाहित होने लगता है जो बाढ़ के प्रभाव को कम कर देता है। तकनीकी हलकों में आज तक इस बात पर सहमति नहीं हो पाई है कि नदी पर बना तटबन्ध बाढ़ को बढ़ाता है या कम करता है। अलग-अलग नदियों और उनमें आने वाली गाद का चरित्र अलग-अलग होता है- ऐसा कह कर इंजीनियर लोग किसी भी बहस से बच निकलते हैं और अपनी सुविधा और अपने ऊपर पड़ने वाले सामाजिक और राजनैतिक दबाव के सन्दर्भ में इन तर्कों की व्याख्या किसी योजना को स्वीकार करने या उसे ख़ारिज करने में करते हैं। 

तटबन्धों के पक्ष में और उनके खिलाफ दोनों तर्क इतने मजबूत हैं कि उन पर कोई भी अनजान आदमी उंगली नहीं उठा सकता। व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिए किसी नदी पर तटबन्ध बनें या नहीं, यह फैसला अपनी समझ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तर्कों का सहारा लेकर इंजीनियर सिर्फ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, जैसी व्यवस्था है उसमें राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कामयाब होते हैं और इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

कोसी नदी की यह जानकारी डॉ दिनेश कुमार मिश्र के अथक प्रयासों का नतीजा है।

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