1978 में पश्चिम बंगाल में भीषण बाढ़ आई थी, जिसके बहुत से रिकॉर्ड अभी तक कायम हैं। इस बाढ़ के बाद मुझे बर्धमान और नदिया जिले में स्कूलों की डिजाइन और सुपरविजन के काम से वहां जाना पड़ता था।
पहली
बार जब बर्धमान गया तब मुझे नोतुनहाट प्रखंड केएक गांव में मुझे मेरे स्थानीय
संपर्क वाले लोग ले गए।
गांव का नाम तो अब मुझे याद नहीं है, पर गांव लगभग खाली था
और गांव में एक बुजुर्गवार मीर साहब मिले। मैं ने उनसे उनका हाल-चाल पूछा और बाढ़
के समय उनके तथा उनके परिवार पर क्या गुजरी यह जानना चाहा।
मीर साहब ने जो बताया वह कुछ इस तरह था..
इस घर में मेरा और बच्चों सहित लंबा/चौड़ा परिवार रहता था। बाढ़ का पानी जब बढ़ने लगा तब परिवार का मेरे ऊपर दबाव पड़ा कि सुरक्षा के ख्याल से कहीं निकल लेते हैं, जबकि मेरा कहना था कि मैंने ऐसी बहुत सी बाढ़ देखी है, थोड़ी देर में सारा पानी उतर जाएगा, कहीं जाने की जरूरत नहीं है। मगर पानी था कि बढ़ता ही चला जा रहा था। आखिरकार मेरे ऊपर परिवार का दबाव बढ़ा और बाकी लोगों ने घर छोड़ कर चले जाने का फैसला किया, मगर मैंने जिद नहीं छोड़ी और यहीं बना रहा।
पानी कमबख्त कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। जब बढ़ता हुआ घुटने तक आ गया तब मुझे भी चिंता हुई कि अब जरूर कुछ गड़बड़ होने वाला है। सामने एक बेर का पेड़ था, जिसकी शाखें अंग्रेजी के Y के अक्षर की तरह थीं। मैं उस पर चढ़ गया और अपनी पीठ एक शाख पर टिकाई और दूसरी शाख पर अपने पैर टिका दिए।
पानी अभी भी बढ़ रहा था और उसी के साथ मेरी परेशानी भी बढ़ रही थी। कभी- कभी ख्याल आता था कि सब के साथ चला ही गया होता तो अच्छा था मगर अब सारे रास्ते बंद हो गए थे। मौत सामने खड़ी थी। इस बीच बाढ़ का पानी बेर के पेड़ की लटकती शाखों तक पहुंच चुका था और वह पानी के थपेड़ों के कारण इधर-उधर घूमने लगी थीं। उनके कांटे कभी मेरी पीठ, बांह और पैरों मे चुभने लगे थे। पानी में लगातार बने रहने के कारण खाल भी फूलने लगी थी। आप सोचिए कि मेरी क्या हालत हुई होगी? घर वाले मुझे बाढ़ में डूब कर मर गया मान चुके होंगे और वह किस हालत में होंगे, यह मैं सोच भी नहीं सकता था। रात होने को आई और मैं भूखा-प्यासा बेर के पेड़ पर कांटे चुभवा रहा था। सांपों का डर ऊपर से। कब तक इस तरह रहना पड़ेगा यह तय नहीं था। रात का आधा पहर ऐसे ही बीता।
इस बीच अचानक जिस शाख पर मेरी पीठ टिकी थी वह टूट गई और मैं पानी की धारा की दिशा में बह चला। बहते- बहते एक जगह बँसवारी में फंसा मगर वहाँ भी बांस का सहारा तो मिला, पर उसका दुख कम नहीं था। पानी का वेग बहुत था और वह बाँस को कई दिशाओं में ठेलता था और मैं उसी हिसाब से हर दिशा में पानी पर तैर रहा था।
जैसे-तैसे सुबह हुई उससे कुछ उम्मीद तो बंधी मगर दूर दूर तक कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ता था। दोपहर बाद एक नाव दिखाई पड़ी तो जान में जान आई। खुशनसीबी मेरी थी कि नाव वाले ने भी मुझे देख लिया था तो पानी में से मुझे निकाल कर ले गए। बाढ़ के समय कभी परिवार का साथ मत छोड़िए। अगर उस समय हाथ छूटेगा तो जिंदगी भर के लिए साथ छूट सकता है।
मीर
साहब बोलते जा रहे थे। उनका अपना दुख था, पर कभी-कभी उनके कहने के ढंग पर हँसी भी
आती थी। अच्छा यही था कि उनका परिवार सलामत था और वह खुद भी ठीक-ठाक थे।
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